'

शेर सिंह बिष्ट, शेरदा अनपढ़ - कुमाऊँनी कवि 06

शेरदा की कविता, लोकप्रिय कुमाउँनी रचना, "मैं कै दगै खेलूं होलि?", Kumaoni Poem on Holi, Sherda ki kavita


शेरदा की होली पर कुमाउँनी रचना है, "मैं कै दगै खेलूं होलि?"



शेरदा की एक बहुत ही लोकप्रिय कुमाउँनी रचना है, "मैं कै दगै खेलूं होलि?"।  यह श्रृंगार रस की बहुत ही उत्तम कुमाउँनी रचना है जिसमें हास्य रास स्वभाविक रूप से विद्यमान है|  जो शेरदा की कविताओं की अपनी एक विशेषता है:- 
मत मारो मोहना पिचकारि,
पैली यै मरि छूं मैहंगाईक मारि
कण्ट्रोलैक की धोति छी,
ओ ईजा चीरि ग्ये सारि

घर मे न्हैति मेरि छबेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

होई घमिक रै चैत में,
ओ इजा सैणि लटिक रै मैत में
कैक करुँ मुखड़ लाल,
कै कैं  लगूं रंग गुलाल
कैक लूचूं फुलि धमेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

होलिक जै यौ त्यार भै,
सैणि बैग न्यार भै
मैंस रनकर भितेर भै,
ज्वै रणकरि भ्यार भै
लोग मारनईं बोलि  टोलि,
मैं कै  दगै खेलूं  होलि
घर मे न्हैति मेरि छबेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

होली छि सुआ होलि गानि,
मैं त्वै कैं तू मैं कैं खानि
तू कतै कै रि  सै जानि,
मैं कतै कै नि बुलानि
तेरि मैते कि झुक रै डोलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि
घर मे न्हैति मेरि छबेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

होलि में रंग कमाल ऐ रौ,
हरि पिल गुलाल है रौ
रंग रंग में रंगयुं नई,
हात पड़ि ग्ये जैकि मुनई
क्ये रुखिणि मेरि खोरि,
मैं कै दगै खेलूं होलि
घर मे न्हैति मेरि छबेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

कईं जोड़ चाचड़ि है रईं,
कईं झ्वाड़ छपेलि है रईं
कौतिक है रौ वार पार घर,
नीन नीं औने रात भर
दिजा सुआ नीनै की गोलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि
घर मे न्हैति मेरि छबेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

सुख क्ये जाणु दुखैकि बात,
खै क्ये जाणु भूखैकि बात
मैं हूं अन्यायि रात है रै,
तुमरि हँसि मजाक है रै
भ्यार घुम नै मस्त टोलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि
घर मे न्हैति मेरि छबेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

दिल म्यरौ उदास छू,
दिलदार सौरास छू
कैक रंगु धोतिक चाव,
ओ ईजा, कै कैं हालूं मैं अंग्वाव
कैकि लूटूं आंगैकि चोलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि
घर मे न्हैति मेरि छबेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

होलि में बहार ऐ रै,
और मेरि डड़ा-डाड़ है रै
नानतिन भीतेर ते छोड़िये छन,
नौ दिन बटि पड़िये छन
ऐ जा हाड़ि मेरि पगलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि
घर मे न्हैति मेरि छबेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

भैंस ब्यानौ काटै काट,
ओ ईजा, सैणि ब्यानि लाटै लाट
होलि में यौ हाल है रईं,
सौरासि निहाल है रईं
भांग फूलो तराई खोलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि
घर मे न्हैति मेरि छबेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

होई में त्वील तस करौ,
सुण धैं ज़रा कस करौ
बिचारि ईन्साफ कर,
क्ये कसूर हो माफ़ कर
तू नि औनि हालूं झोलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि
घर मे न्हैति मेरि छबेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

मैं परि बीति रै चैत में,
तू पसर रै छै मैत में
क्ये कसूर हो कौनि कन,
ओ नबाबा औनि कन
बुलै ला रे रमू ढोलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि
घर मे न्हैति मेरि छबेलि,
मैं कै दगै खेलूं होलि

आ हा ऐ ग्ये सैणि मैत बै,
ओ ईजा रंग फूट गो चैत बै
आज कतुक भल है रौ,
जाणि कौं लौ च्यल है रौ

शेरदा ‘अनपढ़’ के कवि जीवन और रचनाओं के बारे में हम आगे के भागों में भी पढ़ते और जानते रहेंगे। 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ